Bastar ka Dussehra (बस्तर का दशहरा)

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बस्तर का दशहरा

रूपरेखा

bastar ka dussehra
Bastar ka dussrehra

Bastar ka Dussrehra (बस्तर का दशहरा) – Important topic for CGPSC Prelims and CGPSC Mains

  1. बस्तर के दशहरे की उत्पत्ति का मत
  2. उत्सव की तैयारी
  3. बलि व्यवस्था एवं सामग्री संचयन
  4. पाठा जात्रा
  5. रथ निर्माण उत्सव समिति
  6. काछिनगादी
  7. रैला पूजा
  8. जोगी बिठाई/बैठाई
  9. रथ चालन
  10. भीतर रैनी बाहर रैनी
  11. काछिन जात्रा
  12. मुरिया दरबार
  13. ओहाड़ी

बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में बस्तर दशहरा सर्वश्रेष्ठ पर्व है। इसका संबंध सीधे माँ दंतेश्वरी(माँ दुर्गा) से जुड़ा है। पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को माँ दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर को शिरोच्छेदन किया था। इसी कारण इस तिथि को विजयादशमी उत्सव के रूप में लोक मान्यता प्राप्त हुई। जाहिर है कि बस्तर अंचल का दशहरा पर्व रावण वध से संबंध नहीं रखता। 600 साल पुरानी अनूठी परंपरा है ।

श्रावण अमावस्या से आश्विन शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है । बस्तर दशहरा की परंपरा और इसकी जन स्वीकृति इतनी विस्तृत एवं व्यापक है कि निरंतर 75 दिन चलता है।

मान्यता – एक अनुश्रुति के अनुसार बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा कर मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्ण भूषण आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी। इस पर पुजारी को स्वप्न हुआ था। स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित करने हेतु पुजारी को आदेश दिया था। कहते हैं कि राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी

Paatjatra

पाट जात्रा के साथ बस्तर दशहरे का आगाज़

हरियाली अमावस्या पर दंतेश्वरी मंदिर स्थित सिंह द्वार में बस्तर दशहरा की पहली रस्म पाट जात्रा पूजा विधान पूर्ण किया जाता है । इसी के साथ ही 75 दिवसीय बस्तर दशहरा की शुरुआत होती है । बिलोरी ग्राम से लाए गए साल की लकड़ी ठुरलु खोटला की लाई, फूल, सिंदूर, चावल, केला, मोंगरी मछली, अंडा, बकरा अर्पित कर पूजा पाठ किया जाता है । रथ बनाने वाले लकड़ी में कील लगाकर बस्तर दशहरा की शुरुआत करते है ।  

पाट जात्रा का अर्थइस रस्म में लकड़ी की पूजा की जाती है।  बस्तर के आदिवासी अंचल में लकड़ी को अत्यंत पवित्र माना जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक लकड़ी मनुष्य के काम आती है, इसलिए आदिवासी संस्कृति में इसका विशिष्ट स्थान है। बस्तर दशहरा देवी की आराधना का पर्व है।

डेरी गड़ाई पूजा

छत्तीसगढ के बस्तर दशहरा में दूसरा महत्वपूर्ण पूजा विधान डेरी गड़ाई आज संपन्न हुआ। इस विधान के बाद दशहरे में चलने वाले रथ का निर्माण बस्तर के आदिवासियों द्वारा शुरू कर दिया जाएगा। स्थानीय सिरहासार भवन में ग्राम बिरिंगपाल से लाई गई साल की टहनियों को गड्ढे में पूजा विधान के साथ गाडऩे की प्रक्रिया को डेरी गड़ाई कहा जाता है। बेड़ाउमरगांव एवं झारउमरगांव के बढ़ई – विश्वविख्यात बस्तर दशहरे के रथ के निर्माण की जवाबदारी वर्षो से बेड़ाउमरगांव एवं झारउमरगांव के बढ़ईयों द्वारा संपन्न कराई जाती है। बस्तर दशहरे के लिए निर्माण किया गया फूल रथ, चार चक्कों का तथा विजय रथ आठ चक्कों का बनाया जाता है। 

काछिनगादी

Pic credit – Patrika news

बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है। काछनगादी का अर्थ होता है, काछिन देवी को गद्दी देना। काछिनदेवी की गद्दी होती है काँटों की। काँटों की गद्दी पर बैठकर काँटों को जीतने का संदेश देती हैं। काछिन देवी बस्तर के मिरगानो की कुलदेवी हैं। काछिन देवी मिरगान जाति की कुंवारी कन्या पर आती है ।

अश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। इस कार्यक्रम के लिए राजा अथवा राजा का प्रतिनिधि संध्या समय धूमधाम के साथ दंतेश्वरी मंदिर से जुलूस लेकर जगदलपुर के पथरागुड़ा मार्ग पर स्थिन काछिनगादी (काछनगुड़ी) में पहुँच जाता था। जगदलपुर स्थित काछनगुड़ी में काछनदेवी से  बस्तर दशहरा मनाने की अनुमति माँगते  हैं ।

आज दंतेश्वरी के पुजारी द्वारा इस कार्यक्रम की अगुवाई की जाती है। मान्यता के अनुसार काछिन देवी धन-धान्य की वृद्धि एवं रक्षा करती हैं।

एक परमभक्त सिरहा आवाहन करता है। देवी के आगमन पर झूलेपर सुलाकर उसे झुलाते हैं। फिर देवी की पूजा अर्चना की जाती है और उससे दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है। काछिन देवी से स्वीकृति सूचक प्रसाद मिलने के पश्चात बस्तर का पारंपरिक दशहरा समारोह बड़ी धूमधाम के साथ प्रारंभ हो जाता है।

नवरात्र जोगी बिठाई

आश्विन शुक्ल 1 से बस्तर दशहरा अपना नवरात्रि कार्यक्रम आरंभ करता है। इस अवसर पर प्रातः स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर में सर्वप्रथम कलश स्थापन होता है। इसके अंतर्गत संकल्प पाठ होता है। चंडी हनुमान बगलामुखी और विष्णु आदि देवी देवताओं के जप और पाठ नवरात्र भर चलते रहते हैं।

इसी दिन सिरासार प्राचीन टाउन हॉल में जोगी बिठाई की प्रथा पूरी की जाती है। जोगी बिठाने के लिए सिरासार के मध्य भाग में एक आदमी की समायत के लायक एक गड्ढा बना है। जिसके अंदर हलबा जाति का एक व्यक्ति लगातार 9 दिन योगासन में बैठा रहता है। जोगी इस बीच फलाहार तथा दुग्धाहार में रहता है। जोगी बिठाई के समय पहले एक बकरा और ७ माँगुर मछली काटने का रिवाज था। अब बकरा नहीं काटा जाता केवल माँगुर माछ ही काटे जाते हैं। जोगी बिठाई से पहले देवी को मांगुर प्रजाति की मछली की बलि दी जाती है.

रथ परिक्रमा

जोगी बिठाई के दूसरे दिन से रथ चलना शुरू हो जाता हैअश्विन शुक्ल 2 से लेकर लगातार अश्विन शुक्ल 7 तक । चार पहिए वाला यह रथ पुष्प सज्जा प्रधान होने के कारण फूलरथ कहलाता है। इस रथ पर आरुढ होने वाले राजा के सिर पर फूलों की पगड़ी बँधी होती थी। राजा रथ पर केवल देवी दंतेश्वरी का केवल छत्र ही आरुढ़ रहता है। साथ में देवी का पुजारी रहता है। रथ प्रतिदिन शाम एक निश्चित मार्ग को परिक्रम करता हाँ और राजमहलों के सिंहद्वार के सामने खड़ा हो जाता है।

पहले-पहले 12 पहियों वाला एक विशाल रथ किसी तरह चलाया जाता था। परंतु चलाने में असुविधा होने के कारण एक रथ को आठ और चार पहियों वाले दो रथों में विभाजित कर दिया गया। क्योंकि जन श्रुति है कि राजा पुरुषोत्तम देव को जगन्नाथ जी ने बारह पहियों वाले रथ का वरदान दिया था। दशहरे की भीड़ में गाँव-गाँव से आमंत्रित देवी देवताओं के साज बाज आज भी देखने को मिल जाते है। रथ के साथ-साथ नाच गाने भी चलते रहते हैं।

मुंडा लोगों के मुंडा बाजे बज रहे होते हैं। रथ को दंडामी माड़िया और धुरवा जनजाति के लोग खींचते हैं । इस अवसर पर गोंड जनजाति भवानी देवी तथा भूमिया जनजाति गामसेन देव की पूजा करते हैं ।

उनका ‘मार’ (लोक-नृत्य) धमाधम चल रहा होता हैनाइक पाइक माझी कोटवार आदि तो आज भी चल रहे होते हैं, पर पहले सैदार बैदार पड़ियार और राजभवन के नौकर चाकर भी अपने अपने राजसी पहनावे में चलते रहते हैं। पहले रथ प्रतिदिन सीरासार चौक से ठीक समय पर चलकर शाम को एक निश्चित समय पर सिंह द्वार के सामने पहुँच जाता है। पहले बस्तर दशहरा में इस रथयात्रा के दौरान हल्बा सैनिकों का वरचस्व रहता था। आज भी उनकी भूमिका उतनी ही जीवंत एवं महत्त्वपूर्ण है। अश्विन शुक्ल सप्तमी (7) को चार पहियों वाले रथ की समापन परिक्रमा चलती हैतत्पश्चात दूसरे दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है।

Jogi Baithai

निशजात्रा / दुर्गाष्टमी

दुर्गाष्टमी के अंतर्गत निशाजात्रा का कार्यक्रम होता है। निशाजात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है।

जोगी उठाई ( मावली परघाव)

मावली परघाव का अर्थ है देवी की स्थापनाअश्विन शुक्ल नवमीं (9) को संध्या समय लगभग 5 बजे जगदलपुर स्थित सिरासार में बिठाए गए जोगी को समारोह पूर्वक उठाया जाता हैफिर जोगी को भेंट देकर सम्मानित करते हैं। इसी दिन लगभग 9 बजे रात्रि में मावली परघाव होता है। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। मावली देवी को दंतेश्वरी का ही एक रूप मानते हैं। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है और उस मूर्ति को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है। यही है मावली माता की मूर्ति। मावली माता निमंत्रण पाकर दशहरा पर्व में सम्मिलित होने जगदलपुर पहुँचती हैं।

विजयादशमी भीतर रैनी

विजयादशमी तथा अश्विन शुक्ल 11 को जगदलपुर में दशहरे की भीड़ पहले अपनी चरमावस्था को पहुँच जाती थी। पर भीड़ अब उतनी नहीं होती। विजयादशमी के दिन भीतर रैनी तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं। दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है। भीतर रैनी अर्थात विजयादशमी के दिन यह रथ अपने पूर्ववर्ती रथ की ही दिशा में अग्रसर होता है। इस रथ पर झूले की व्यवस्था रहती है। जिस पर पहले रथारुढ़ शासक वीर वेश में बैठा झूला करता था। विजयादशमी के रथ की परिक्रमा जब पूरी हो चुकती है तब आदिवासी आठ पहियों वाले इस रथ को प्रथा के अनुसार चुराकर कुमढ़ाकोट ले जाते हैं।

बाहर रैनी की रस्म पूरी होने के बाद रात को माड़िया जनजाति के आदिवासी रथ को चुरा का कुम्हाड़कोट नाम की जगह पर ले जाते हैं. लेकिन जब पहली बार बस्तर दशहरा मनाया गया तब माड़िया जनजाति को कोई काम नहीं दिया गया था जिससे वे नाराज हो गए और उन्होंने रथ चुरा लिया. अगले दिन बस्तर के महाराज को जाकर उन्हें मनाना पड़ा, उन्होंने महाराज को अपने साथ बैठकर खाना खाने को कहा. खाना खाने के बाद ही रथ वापस किया गया. इसके बाद रथ चोरी भी परंपरा का हिस्सा बन गई.

बाहिर रैनी

कुमढ़ाकोट राजमहलों से लगभग दो मील दूर पढ़ता है। कुमढ़ाकोट में राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते थे। पहले भीतर रैनी और बाहिर रैनी के कार्यक्रमों में धनु काँडेया लोगों की धूम मची रहती थी। भतरा जाति के नवयुवक धनुकाँडेया बनते थे। उनकी वह पुष्प सज्जित धधारी देह सज्जा देखते ही बनती थी। धनु काँडेया रथ खींचने के लिए आदिवासियों को पकड़ लाने के बहाने उत्सव की शोभा बढ़ाते थे। वे रह-रह कर आवाज़ करते, इधर उधर भागते फिरते नज़र आते थे। बाहिर रैनी का झूलेदार रथ कुम्हड़ाकोट से चलकर धाने की ओर से सदर रोड होते हुए सदर प्राथमिक शाला के निकट के चौराहे से गुज़रता है। सिंह द्वार तक पहुँचते पहुँचते उसे रात हो जाती है।

मुरिया दरबार (बस्तर के लोगों की संसद )

अश्विन शुक्ल 12 को प्रातः निर्विघ्न दशहरा संपन्न होने की खुशी में काछिन जात्रा के अंतर्गत काछिन देवी को काछिनगुड़ी के पासवाले पूजामंडप पर पुनः सम्मानित किया जाता है। इसी दिन शाम को सीरासार में लगभग 5 बजे से ग्रामीण तथा शहराती मुखियों की एक मिली जुली आसंभा लगती थी। जिसमें राजा प्रजा के बीच विचारों का आदान प्रदान हुआ करता था। विभिन्न समस्याओं के निराकरण हेतु खुली चर्चा होती थी। मुरिया दरबार को बस्तर के लोगों की संसद भी कहा जाता रहा है जहां प्रजा बोलती है और राज सुना करते थे। इस सभा को मुरिया दरबार कहते थे। बस्तर दशहरे का यह एक सार्थक कार्यक्रम था। वैसे आदिवासी दरबार आज भी चल रहा है। इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं की विदाई हो जाती है। 

ओहाड़ी

अंत में अश्विन शुक्ल त्रयोदशी13 को प्रातः गंगा मुणा स्थित मावली शिविर के निकट बने पूजा मंडप पर मावली माई के विदा सम्मान में गंगा मुंडा जात्रा या कुटुंब जात्रा संपन्न होती है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते हैं।

निष्कर्ष:

बस्तर दशहरा बहु आयामी है। धर्म, संस्कृति, कला, इतिहास और राजनीति से इसका प्रत्यक्ष संबंध तो जुड़ता ही है साथ-साथ परोक्ष रूप से बस्तर दशहरा समाज की उच्च एवं परिष्कृत सांस्कृतिक परंपरा का साक्षी भी बनता है। आज का बस्तर दशहरा पूर्णतः दंतेश्वरी का दशहरा है। बस्तर दशहरे की यह एक तंत्रीय पर्व प्रणाली आज के बदलते जीवन मूल्यों में भी दर्शकों को आकर्षित करती चल रही है। यह इसकी एक बड़ी बात है। कहना न होगा आज का जो बस्तर दशहरा हम देख रहे हैं। वह हमें अपने गौरवशाली अतीत से जोड़ता है। एक ऐसा अतीत जो बस्तर के आदिवासियों की अमूल्य धरोहर है किंतु जिस पर संपूर्ण भारतवासी गर्व करते हैं ।

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